मज़दूरी,बर्तन धोना,कही पानी बेचता बचपन नतीजा अंधकारमय भविष्य ...
अंतर्राज्यीय झकरकटी बस स्टैंड में बचपन बेच रहा पानी :
एक ओर वर्तमान सरकार देश की तरक्की की गौरव गाथा गा रही है वही दूसरी ओर देश का बचपन कानपुर के बस स्टैंड में पानी की बोतल बेच रहा है हम बच्चों की रोजी रोटी नही छीनना चाहते हम बस देश के कानून की व्यवस्था का हाल आप सबके सामने लाना चाहते है जो सरकारें कहती है देश बदल रहा है उन्हें ये मालूम होना चाहिये देश केवल पन्नों में बदल रहा है जमीनी हकीकत कुछ और बयां करती है जिसका जीता जागता सबूत है कानपुर का झकरकटी बस स्टैंड जहां बच्चे कोमल हाथों में पानी लियें देश के भविष्य की इबारत लिख रहा है और ये सब देश के कानून के सिपाही के सामने हो रहा है ये वही कानून का सिपाही है जो कानून की देवी की काली पट्टी अपनी खुली आंखों में बांधे है। झकरकटी बस स्टैंड के अधिकारी भी कोई कार्यवाही नही करते शायद इसमें उनका भी कोई स्वार्थ छिपा है ।
क्या कहता कानून :
नये कानून के जरिए बाल श्रम (प्रतिबंध एवं नियमन) अधिनियम 1986 में संशोधन किया गया है ताकि किसी काम में बच्चों को नियुक्त करने वाले व्यक्ति पर जुर्माना के अलावा सजा भी बढ़ाई जा सके. ... कानून के मुताबिक किसी भी बच्चे को किसी भी रोजगार या व्यवसाय में नहीं लगाया जाएगा,
बाल श्रम के उन्मूलन के लिए सरकार द्वारा अपनाई गई वैधानिक नीति में निम्न कदम उठाए गए :
एक विधायी कार्य-योजना: सरकार ने कुछ रोजगारों में बच्चों की नियुक्ति को प्रतिबंधित करने और कुछ अन्य रोजगारों में बच्चों की कामकाजी परिस्थितियों को विनियमित करने के लिए, बाल श्रम (निषेध एवं विनियमन) अधिनियम १९८६ को प्रवर्तित किया है।
जहां भी संभव हो, बच्चों के लाभार्थ सामान्य विकास कार्यक्रमों पर ध्यान केंद्रण और अभिसरण के लिए,श्रम एवं रोजगार मंत्रालय में सरकार की विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के अभिसरण पर एक कोर गठित किया गया है,
बचपन छीनता बालश्रम :
बचपन, जिंदगी का बहुत खूबसूरत सफर होता है। बचपन में न कोई चिंता होती है, ना कोई फिक्र होती है, एक निश्चिंत जीवन का भरपूर आनंद लेना ही बचपन होता है। लेकिन कुछ बच्चों के बचपन में लाचारी और गरीबी की नजर लग जाती है। जिस कारण से उन्हें बाल श्रम जैसी समस्या का सामना करना पड़ता है। बाल श्रम वर्तमान समय में बच्चों की मासूमियत के बीच अभिशाप बनकर सामने आता है।
क्या है ? बाल श्रम :
बाल श्रम, भारतीय संविधान के अनुसार 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों से कारखाने, दुकान, रेस्तरां, होटल, कोयला खदान, पटाखे के कारखाने आदि जगहों पर कार्य करवाना बाल श्रम है। बाल श्रम में बच्चों का शोषण भी शामिल होता है, शोषण से आशय, बच्चों से ऐसे कार्य करवाना, जिनके लिए वे मानसिक एवं शारीरिक रूप से तैयार न हों।
भारत के संविधान में मूल अधिकारों के अनुच्छेद 24 के अंतर्गत भारत में बाल श्रम प्रतिबंधित है। बाल श्रम का मुख्य कारण गरीब बच्चों के माता-पिता का लालच, असंतोष होता है। लालची माता-पिता अपने एशो-आराम के लिए बच्चों से मजदूरी कराते हैं। जिससे बच्चें न ही स्कूल जा पाते हैं और न ही ज्ञान प्राप्त कर पाते हैं।
वर्तमान समय में संपूर्ण विश्व में 215 मिलियन बच्चे बाल मजदूरी कर रहे हैं। 1991 की जनगणना में बाल मजदूरों के सर्वेक्षण के अनुसार 11.3 मिलियन बच्चे बाल मजदूरी का रहे थे। इसके बाद 2001 की जनगणना में इनकी संख्या 12.7 मिलियन हो गई थी।
बाल श्रम के दुष्प्रभाव :
1. बच्चों के विकास में बाधक - बाल श्रम का सबसे ज्यादा असर बच्चों के विकास पर होता है, बाल मजदुरी से बच्चों का शारीरिक एवं मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। जिस उम्र में बच्चों को खेल-कूद कर, शिक्षा लेकर अपना विकास करन चाहिए, उस उम्र में उन्हें मजदूरी करना पड़ती है।
2. बाल श्रमिकों का शोषण - बाल मजदूरों का उनके मालिक द्वारा ज्यादा शोषण किया जाता है। बाल मजदूर कम मजदूरी लेकर ज्यादा काम करने के लिए राजी हो जाते हैं एवं उनसे मनचाहा काम करा लिया जाता है।
3. शिक्षा का अभाव - गरीबी के कारण बच्चे बाल मजदूरी करने पर मजबूर हो जाते हैं और उनके जीवन में शिक्षा का अभाव बना रहता है।
4. जीवन का खतरा - कारखाने, कोयले की खदानें, पटाखों की फैक्टरी आदि में कार्य करने से बाल श्रमिकों की जान को ज्यादा खतरा रहता है। सरकार ने इसके लिए भी कानून बनाया है, जिसमें 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों से कारखानों एवं खदानों में काम करवाना अपराध है।
5. बाल श्रम का मुख्य कारण गरीबी, अशिक्षित समाज एवं देश की बढ़ती जनसंख्या है। बाल श्रम जैसा अपराध विदेशों में भी बहुत अधिक देखने को मिलता है। बाल श्रम सभी देशों के विकास में सबसे ज्यादा बाधक बनता है।
बाल श्रमिकों हेतु व्यवस्थाएं :
1. बाल श्रमिक स्कूल - सरकार द्वारा बाल मजदूरों के लिए बाल श्रमिक स्कूल खुलवाने चाहिए। जो उन्हें उनके काम के बाद शिक्षा प्रदान करे।
2. मुफ्त शिक्षा - सरकार द्वारा सभी सरकारी स्कूलों की शिक्षा, दसवीं कक्षा तक मुफ्त कर देना चाहिए। ऐसा करने से सभी गरीब बच्चे हाई स्कूल परीक्षा उत्तीर्ण कर सकते हैं एवं उन्हें रोजगार भी आसानी से प्राप्त हो सकेंगे।
प्रति वर्ष जून के महीने में 12 तारीख को विश्व स्तर पर एक ऐसा दिवस मनाया जाता है जो इंसानियत के नाते तो अपना महत्व रखता है लेकिन सरकार या जनता को उससे कोई ज्यादा सरोकार नहीं रहता। हमारे देश में नेहरू का जन्मदिन बाल दिवस के रूप मनाने की औपचारिकता हर वर्ष निभाई जाती है लेकिन दुनिया में कुछ बच्चे ऐसे भी हैं जिन्हें पता ही नहीं होता कि बालपन या बचपन भी जिंदगी का हिस्सा होता है।
इन्हें 4-5 साल का होते ही काम करने भेज दिया जाता है। यह काम भीख मांगने से लेकर घरेलू काम, ढाबे पर बर्तन साफ करना, पंक्चर लगाना, भी में कोयला झोंकना, खतरनाक कैमिकल से कपड़े या चमड़े की रंगाई करना, कांच की चूडिय़ां या दूसरी चीजें बनाने का है। इन्हें शायद बड़ी उम्र वाला कभी न करे और करने के लिए मान भी जाए तो काम के मुताबिक मेहनताने की मांग करे।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस दिवस को मनाने की शुरूआत इसलिए की गई कि दुनियाभर में इन कामों को बच्चों से न कराया जाए और बच्चे वह काम करें जो उन्हें बचपन का एहसास दिलाए मतलब कि उनका काम पढऩा-लखना, खेलना-कूदना और हल्की शरारत करना ही हो। हम बच्चों को देश का भविष्य कहते नहीं थकते लेकिन प्रश्न यह है कि क्या मजदूरी करने वाले ये बच्चे देश का भविष्य नहीं हैं।
इस दिन बहुत खोजने पर भी किसी अखबार या चैनल में इस महत्वपूर्ण विषय पर कोई लेख, बहस या घोषणा नहीं मिली सिवाय एक अंग्रेजी अखबार में इस समस्या को जड़-मूल से समाप्त करने का संकल्प लेकर चलने वाले कैलाश सत्यार्थी के लेख के, जबकि यह समस्या अपने ही देश में इतनी विकराल है कि अगर कोई संवेदनशील समाज हो तो वह विचलित हुए बिना न रहे।
मजबूरी या बहाना :
दुनिया की बात क्या करें, भारत में ही बाल मजदूर हजारों-लाखों में नहीं, करोड़ों में हैं। अंदाजा लगाया जा सकता है कि अगर ये करोड़ों बच्चे भीख मांगकर या मजदूरी न करके पढ़-लिखकर कुछ बनने की राह पर चलने लगते तो देश को कितना सामाजिक और आॢथक लाभ होता।
असलियत यह है कि बाल मजदूरी की मजबूरी को गरीबी का बहाना बनाकर टाल दिया जाता है लेकिन वास्तविकता यह है कि यह हमारा लालच, दबंगई, शोषण करने की मानसिकता और जोर-जबरदस्ती करने से लेकर बच्चों पर जुल्म करने तक की आदत है जो बाल मजदूरी को खत्म करने में सबसे ज्यादा आड़े आती है। इसके आगे कानून की कड़ाई का भी कोई अर्थ नहीं।
सोच बदलनी होगी : चलिए एक और दृश्य का एहसास कराते हैं। परिवार में एक ओर साफ ड्रैस पहने बच्चे स्कूल जाने को तैयार हैं और घर में उन्हीं की उम्र का नौकर या नौकरानी भी है तो इन एक ही उम्र के बच्चों की सोच का अंदाजा लगाइए। एक को हुक्म चलाना है तो दूसरे को हुक्म मानना है। अगर उससे कोई चूक हो गई तो सजा मिलना तय है।
अगर उसने फ्रिज में से कोई मिठाई या स्वादिष्ट वस्तु मुंह में रख ली या अगर कहीं आपके बच्चे का पुराना खिलौना भी उसने बाल सुलभ उत्सुकता से छू भर लिया तो उसे चोर मानकर मारपीट कर लहूलुहान करने में कोई देर नहीं लगाते।
एक दूसरा सीन है। किसी कारखाने, दुकान में गर्मी-सर्दी व बरसात में दिन-रात भूखे पेट या रूखी-सूखी रोटी खाकर काम करने वाले 8-9 से 12-14 साल तक के बालक की जरा-सी गलती पर उसे यातना, उत्पीडऩ और यौनाचार तक सहन करना पड़ता है।
उनका खोया बचपन लौटाने का काम करने में जितना पुण्य मिल सकता है उतना शायद सभी तीर्थों की यात्रा और धार्मिक स्थलों, मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे और गिरजाघर के चक्कर लगाने और पूजा-पाठ करने से भी न मिले। यह करने के लिए किसी रॉकेट साइंस की नहीं, बस सच को समझने और सोच को बदलने की जरूरत है।
आंकड़ों की बात करें तो विकासशील देशों में 5-14 वर्ष की आयु के लगभग चौथाई बच्चे मजदूरी करते हैं जिनमें उनकी सेहत के लिए खतरनाक काम करने वाले भी उसका लगभग चौथाई हैं। इनमें से ज्यादातर अपने मालिक की यौन इच्छाओं की पूॢत करने के लिए भी मजबूर किए जाते हैं। ये लोग स्वयं तो उनके साथ दुराचार करते ही हैं बल्कि अपने मेहमानों से लेकर अधिकारियों और कानूनी कार्रवाई से बचने के लिए पुलिस को भी उन्हें बंधुआ मजदूर के रूप में पेश कर देते हैं।
यह कितनी भयावह स्थिति है इसका अंदाजा इस बात से लगता है कि बड़े होकर तीन-चौथाई लोगों का अपराधी बनने का कारण बचपन में बाल मजदूरी के दौरान उनके साथ हुआ अत्याचार और यौन शोषण है। देहाती इलाकों में यह सबसे ज्यादा होता है और अब शहरों में भी ये आंकड़े तेजी से बढ़ रहे हैं।
समाधान :
बाल मजदूरी का सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह होता है कि इन बच्चों को पढ़ाई-लिखाई बेकार लगने लगती है क्योंकि मालिकों द्वारा उनके साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है कि स्कूल के नाम से ही उन्हें चिढ़ होने लगती है। उनके मन में यह भर दिया जाता है कि पढऩे के बाद भी उनकी आमदनी जिंदगी भर उतनी नहीं होगी जितनी अभी हो रही है।
वास्तविकता को ध्यान में रखते हुए यह कहना गलत होगा कि केवल गरीबी ही इसका कारण है बल्कि उनके माता-पिता
का लालच और कारखानेदारों द्वारा उनका मानसिक और शारीरिक शोषण है।
बाल मजदूरी को रोकने के लिए जो कानून हैं उनका इस्तेमाल जिस ढिलाई से होता है उसमें राजनीतिक दबाव और घूसखोरी के साथ पुलिस के भ्रष्ट अधिकारियों द्वारा अपराधी के पकड़े न जाने का पूरा इंतजाम भी है। विडम्बना यह है कि बाल मजदूरी उन्मूलन में लगी संस्थाओं और उनके संचालकों की सहायता करने के स्थान पर उनके काम में रोड़ा अटकाने,
उन्हें ही कसूरवार ठहराने से लेकर उन पर हमला करवाने तक की साजिशें की जाती हैं। बचपन बचाओ आंदोलन के प्रवर्तक और नोबेल पुरस्कार से सम्मानित कैलाश सत्यार्थी पर कई बार हुए जानलेवा हमले इसकी छोटी-सी बानगी है। इस हालत में सरकार और कानून से ज्यादा उम्मीद रखने की बजाय प्रबुद्ध नागरिकों को आगे आना होगा।
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