कोरोना वॉरियर्स की कहानियां ...
कोरोना वॉरियर्स
कोरोना के संकट से इस समय पूरा देश जूझ रहा है, लेकिन ऐसे वक्त में भी तमाम लोग निस्वार्थ भाव से अपनी ड्यूटी करने में लगे हैं। वास्तव में ये लोग ऐसे कोरोना योद्धा हैं जिन्हें अपने फर्ज के आगे अपने जीवन की भी चिंता नहीं है। इस संकट के समय में ऐसे लोगों की लोग सराहना कर रहे हैं। कोरोना के इस युद्ध में एक सैनिक की तरह लड़ रहीं नर्स सोनम गुप्ता की कहानी कुछ अलग है। उनकी 16 जनवरी को ही शादी हुई है। ससुराल सौ किलोमीटर दूर कानपुर में है। शादी के बाद ससुराल में 15 दिन ही बीते थे कि सोनम ने दो फरवरी को ड्यूटी ज्वॉइन कर ली।
कोरोना संकट आते ही फरवरी के अंत में उनकी ड्यूटी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र फफूंद से दिबियापुर सीएचसी में लगाने का फरमान आया। उन्होंने अपने सास-ससुर और पति हिमांशु को इस बारे में बताया। उन्हें समझाया कि 14 दिन की ड्यूटी के बाद 14 दिन का क्वारंटीन पीरियड है। लगभग एक माह की दूरी। साथ ही खतरा भी।
सोनम के जज्बातों में कोरोना के इस युद्ध में सिपाही की जिम्मेदारी भी झलक रही थी। ससुराल वालों ने उन्हें रजामंदी दे दी। दो अप्रैल से वह आइसोलेशन वार्ड में ड्यूटी कर रही हैं। यहां कस्बे में मिले चार कोरोना पॉजिटिव मरीजों का इलाज भी हुआ है। सोनम कहती हैं कि हमने उनके इलाज में कोई कसर नहीं छोड़ी। अब सभी मरीजों को कानपुर भेज दिया गया है। खास बात यह है कि सोनम का मायका अस्पताल से 500 मीटर की दूरी पर ही है। वह वहां भी नहीं जा सकती हैं। न ही कोई उनसे मिलने जा सकता है। वह अपने पति से वीडियो कॉलिंग से बात कर मन को तसल्ली दे देती हैं। यह ऐसी कोरोना योद्धा हैं जिसमें उनका परिवार भी युद्ध लड़ने में जुटा है। सेवा भाव देखिये पति के साथ बच्चे भी पीछे नहीं है। स्टाफ नर्स सरिता बखूबी परिचित हैं कि अस्पताल में आने वाले गरीबों की हालत क्या होती है। वह इस महामारी के बीच मास्क कहां से खरीद कहां पाएंगे।
इसलिए उन्होंने अपने परिवार से ही कवायद शुरू की। वह रोज ड्यूटी खत्म करने के बाद पति राघवेंद्र और बेटी सृष्टि (11) और बेटे आयुष के साथ मास्क बनाती हैं। पति रॉ मटीरयल लाते हैं। वह सिलाई करती हैं। दोनों बच्चे उनकी मदद करते हैं। उन्हें अस्पताल में आते या जाते वक्त कोई भी जरूरतमंद दिखता है उसको मास्क मुफ्त में देती हैं।
उनके परिवार की ही मेहनत है कि तीन दिन के अंदर अबतक 100 से ज्यादा मास्क वह बांट चुकी हैं। अब तो कॉलेज के कर्मचारी भी उनकी मास्क बांटने में मदद करते हैं। कई मास्क उन्होंने पुलिसकर्मियों को भी दिए हैं। इस महामारी को हराने में उनके नन्हें योद्धा भी जुटे हैं। कोरोना के इस युद्ध में ऐेसे योद्धा भी हैं जिन्हें भविष्य के सिपाहियों की भी चिंता है। उन्हें ऐसी मिसाल देना चाहते हैं जो उनके जज्बे को बढ़ाती रहेंगी। 24 मार्च को जब डॉ. एपी वर्मा अपने घर झांसी जाने की तैयारी कर रहे थे तभी उन्हें अस्पताल में ही रुकने का आदेश आया। घर पर 75 साल के वृद्ध पिता व तीन बेटियों ने कहा कि सब छोड़कर घर आ जाइये।
लेकिन वह मरीजों को छोड़ते कैसे। बड़ी बेटी जो डॉक्टरी की तैयारी कर रही है उसपर क्या असर पड़ता। डॉ. वर्मा ने परिजनों से कहा कि अगर आज जिम्मेदारी से भाग गया तो डॉक्टरों पर कौन भरोसा करेगा। उन्होंने बेटी नम्रता को बताया कि डॉक्टर ऐसे ही नहीं बनते। त्याग भी साथ चलता है। संकट काल में उन्हें नोडल अफसर बनाया गया है। बड़ी जिम्मेदारी है।
आठ- दस लोगों की टीम का नेतृत्व सौंपा गया। पीछे नहीं हट सकते। डॉ. वर्मा व उनकी टीम ने क्षेत्र की 31 सीएचसी-पीएचसी में आने वाले 52 लोगों का अबतक परीक्षण किया है। सैंपल लखनऊ भेजे हैं। रोज 20 से 25 किलोमीटर क्षेत्र का चक्कर लगाकर क्वारंटीन सेंटरों के मरीजों का परीक्षण करते हैं। ड्यूटी लंबी है, थक के चूर हो जाते हैं लेकिन हौंसला टूटने नहीं देते। कहते हैं अगर हम पीछे हट गए तो नजीर कौन बनेगा।
बांदा को कोरोना युद्ध में पहली जीत दिलाने वाले डॉक्टर करण के मन में कोरोना पॉजिटिव केस आने पर थोड़ी घबराहट तो थी लेकिन मरीज की मानसिक स्थित का भी उनका पूरा ख्याल था। वह जानते थे कि छुआ छूत की बीमारी के डर से मरीज डिप्रेशन में जा सकता है। यह उसके लिए और खतरनाक है।
इसलिए उन्होंने मरीजों को एक दोस्त की तरह ट्रीट किया। उन्हें भरोसा दिलाने के लिए वह मरीजों के कांधे पर हाथ भी रखते थे। हालांकि सुरक्षा किट व गलब्ज रहने थे। दिन में दो बार देखने जाते थे हाल चाल लेने के साथ 15 से 20 मिनट तक बातें भी करते थे। उन्हें मायूस होने का मौका नहीं देते थे। इसी का नतीजा है कि एक अप्रैल और चार अप्रैल को यहां भर्ती किए गए दो कोरोना पॉजिटिव मरीजों की निगेटिव रिपोर्टें आनी शुरू हो गई हैं।
दो पॉजिटिव मरीजों में एक की दो निगेटिव व दूसरे की एक निगेटिव रिपोर्ट नौ अप्रैल तक आ चुकी है। दोनों खतरे से बाहर हो गए हैं। इस जीत ने बांदा की 17 लाख की आबादी को बड़ी खुशी दी है। लेकिन इस जीत के पीछे डॉ. करन राजपूत की 10 से 12 घंटे की रोजाना की मेहनत है। वह 22 मार्च से घर नहीं गए हैं। घर पर 13 साल की बेटी व सातसाल का बेटा है, जो अब उनसे नाराज हैं। वह कहते हैं कि सब घर पर हैं लेकिन आप नहीं। इसका उनके पास कोई जवाब नहीं है।
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