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2000 के 80 फीसदी नोट लोगों के पास डंप ...

नोटों की जमाखोरी से भी पनपी आर्थिक सुस्ती

आर्थिक सुस्ती की तमाम वजहों में से एक नोटों की जमाखोरी भी है। सरकार ने कालेधन के इस्तेमाल को रोकने का दावा भले ही किया हो,  लेकिन एक सच यह भी है कि 2000 के नोटों की जमाखोरी की वजह से बाजार में मुद्रा प्रवाह कम हुआ है।यह ऐसी मुद्रा है जो न तो बाजार में है और न ही बैंकों में। यानी अर्थव्यवस्था में इस्तेमाल करंसी का एक तिहाई हिस्सा लोगों के घरों-तिरोजियों में कैद है। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि मुद्रा का प्रवाह कम होने से भी लोगों की क्रय क्षमता घटी है।देशभर में प्रचलित करंसी में 500 और 2000 के नोटों का कुल हिस्सा 82 फीसदी है। 51 फीसदी 500 की और 31 फीसदी 2000 की करंसी। नोटों की जमाखोरी दर्शाने के लिए कानपुर के कई करंसी चेस्ट की हकीकत को बानगी के तौर पर लेते हैं।

यहां के करीब 35 करंसी चेस्ट में 2000 के नोट नाम मात्र बचे हैं। यानी करंसी न तो रिजर्व बैंक के पास है न ही पब्लिक बैंकों के पास। माना जा रहा है कि नोटबंदी के छह माह बाद से ही नोटों की जमाखोरी शुरू हो गई थी।जीएसटी के संक्रमण काल का फायदा उठाकर पूंजीपतियों ने खूब कालाधन इकट्ठा किया। इस कालेधन को न तो बैंकों में जमा किया गया और न ही दोबारा कारोबार में इस्तेमाल किया गया। इसका असर ये रहा कि बाजार और बैंक से बड़े नोट कम होते गए।इसका असर लोगों की क्रय क्षमता पर पड़ा। शहर के कई करंसी चेस्ट की बैलेंस शीट बताती है कि 2000 रुपये के नोटों की संख्या कुल रकम की औसतन 20 फीसदी शेष है।

इस तरह घटे 2000 के नोट

नोटबंदी के छह माह बाद यानी अप्रैल से जून 2017 तक बैंकों में कैश की आवक में 2000 रुपये के नोटों की संख्या 35 से 40 फीसदी रहती थी। नवंबर 2017 में यह घटकर 20 से 25 फीसदी ही रह गई। 2000 रुपये के नोट वापस आने की स्थिति लगातार ऐसी ही बनी रही।मार्च 2018 में यह आवक 18 से 20 फीसदी थी। इसके बाद रिजर्व बैंक ने 2000 के नोटों की छपाई करके बाजार में इसका सर्कुलेशन बढ़ाने का प्रयास किया लेकिन जितना नोट आता गया वह डंप होता गया। वर्तमान में औसत तीन से पांच फीसदी नोट ही वापस आ रहे हैं। 

इस जमाखोरी में कुछ हिस्सा कालाधन हो सकता है, लेकिन कुछ लोग भविष्य की जरूरतों को ध्यान में रखकर भी पूंजी सुरक्षित रखना चाहते हैं। लोगों का मकसद कुछ भी हो लेकिन मुद्रा की जमाखोरी से बाजार में थोड़ी सुस्ती आती है। आर्थिक सुस्ती की तमाम वजहों में एक यह भी वजह है।
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डॉ. मनोज कुमार श्रीवास्तव, विभागाध्यक्ष अर्थशास्त्र, डीएवी कॉलेज 

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